ORIGINAL PASSAGE (IN HINDI)
NAVBHARAT TIMES, NEW DELHI, 19th July, 1965. Pg.4. Column 7 & 8
१८५७ का आन्दोलन
- अयोध्याप्रसाद गोयलीय -
१८५७ का आन्दोलन
- अयोध्याप्रसाद गोयलीय -
एक रोज़ मैं दरीबे से जा रहा था । क्या देखता हूँ कि एक फौज तिलंगों की आ रही है । मैं भी देख कर गुलाब गंधी की दुकानके सामने खड़ा हो गया । आगे - आगे बैंड वाले थे । पीछे कोई ५०-६० सवार थे । उनके घोड़े क्या थे, धोबी के गधे मालूम होते थे। बीच में सवार थे मगर गठारिओं की कसरत से जिस्म का थोड़ा सो हिस्सा ही दिखाई देता था । यह गठारिआं क्याथीं ? दिल्ली की लूट , जिस भी आदमी को खाता पीता देखा, उसके कपड़े तक उतरवा लिए, जिस रुपये -पैसेवाले को देखा, उस के घर पर जा कर ढही दे दी और कहा, चल हमारे साथ किले, तू अंग्रजों से मिला हुआ है, जब तक कुछ रखवा न लिया, उसका पिंड न छोड़ा । अगर दिल्ली के चरों तरफ़ अंग्रेज़ी फौज का मुहासरा न होता तो शरीफ लोग कभी के दिल्ली से निकल गए होते।
गरज खुदाई फौजदारों का यह लश्कर गुल मचाता, दीन-दीन के नारे लगाता मेरे सामने से गुज़रा । इस जमगफी (भीड़) के बीचों बीच दो मिआं थे । यह कौन थे ? आली जनाब बहादुर खां साहब सिपहसलार । लिबास से बजाये सिपहसलार के दूल्हा मालूम होते थे । जड़ाऊ ज़ेवर में लदे थे । पहनते वक्त शायद यह भी मालूम करने की तकलीफ़ गवारा न की गयी थी कि कौन-सा मरदाना ज़ेवर है और कौन-सा जनाना । जैसे ख़ुद ज़ेवर से आरास्त थे, उसी तरह उनका घोड़ा भी ज़ेवर से लदा हुआ था । माश के आटे की तरह ऐठे जाते थे । मालूम होता था खुदाई अब इनके हाथ आ गयी है । गुलाबगंधी ने जो इन लुटेरों को आते देखा तो चुपके से दुकान बन्द कर ली और अन्दर दरवाजे से झांकता रहा ।
खुदा मालूम क्या इत्तेफ़ाक़ हुआ कि बहादुर खान का घोड़ा एन उसकी दूकान के सामने आकर रुका । बहादुर खां ने इधर-उधर गर्दन फेर के पूछा यह किसकी दूकान है । उनके एड़ी कांग ने अर्ज़ की - "गुलाबगंधी की "। फ़रमाया "इस बदमाश को यह ख़बर नहीं थी कि मां बदौलत इधर से गुज़र रहे हैं । बन्द करने के क्या मायने ? अभी खुलवाओ "।
ख़बर नहीं इस हुक्मे-कज़ा (मृत्यु संदेश) का बेचारे लालाजी पर क्या असर हुआ ? हमने तो यह देखा कि एक सिपाही ने तलवार का दस्ता किवाड़ पर मार कर कहा "दरवाज़ा खोलो ।" और जिस तरह "सम-सम" खुल जा अल्फाज़ से अली बाबा के किस्से में चोरों के खजाने का दरवाज़ा खुलता था । उसी तरह इस हुक्म से गुलाबगंधी की दूकान खुल गयी । दरवाज़े के बीचों बीच लाला जी हांफ़ते हांफते हाथ जोड़े खड़े थे । कुछ बोलना चाहते थे, मगर जबान यारी न देती थी । उस वक्त बहादुर खां कुछ खुश थे । किसी मोटी आसामी को मार कर आए होंगे । कहने लगे तुम्हारी ही दूकान से बादशाह के यहाँ इत्र जाता है ? लाला जी ने बड़ी ज़ोर से गर्दन को टूटी हुई गुडिया के तरह झटका दिया । हुक्म हुआ कि जो इत्र बेहतर से बेह्तर हो, वोह हाजिर करो ।
वे लडखडाते हुए अन्दर गए और दो कंटर इत्र से भरे हुए हाज़िर किए । मालूम नहीं बीस रुपये तोले का इत्र था या तीस रुपए तोले का । बहादुर खां ने दोनों कंटर लिए । काग निकालने की तकलीफ कौन गवारा करता । एक की गर्दन दूसरे सेटकरा दी दोनों गर्दनें टूट गयीं । इत्र सूंघा कुछ पसंद आया एक कंटर घोड़े की आयाल पर (गर्दन के बालों पर) उलट दिया और दूसरा दुम पर । कंटर फैंक कर हुक्म दिया गया - 'फार्वदी' । इस तरह बेचारे गुलाबगंधी का सैंकडों रुपयों का नुकसान करके यह हिंदुस्तानिओं को आजादी दिलाने वाले चल दिए ।
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